हम जो सत्कार्य करते हैं उससे हमें कुछ मिले – यह जरूरी नहीं है। किसी भी सत्कार्य का उद्देश्य हमारी आदतों को अच्छी बनाना है। हमारी आदते अच्छी बनें, स्वभाव शुद्ध, मधुर हो और उद्देश्य शुद्ध आत्मसुख पाने का हो। जीवन निर्मल बने इस उद्देश्य से ही सत्कार्य करने चाहिए।
किसी को पानी पिलायें, भोजन करायें एवं बदले में पच्चीस-पचास रूपये मिल जायें – यह अच्छे कार्य करने का फल नहीं है। अच्छे कार्य करने का फल यह है कि हमारी आदतें अच्छी बनें। कोई ईनाम मिले तभी सुखी होंगे क्या ? प्यासे को पानी एवं भूखे को भोजन देना यह कार्य क्या स्वयं ही इतना अच्छा नहीं है कि उस कार्य को करने मात्र से हमें सुख मिले ? है ही। उत्तम कार्य को करने के फलस्वरूप चित्त में जो प्रसन्नता होती है, निर्मलता का अनुभव होता है उससे उत्तम फल अन्य कोई नहीं है। यही चित्त का प्रसाद है, मन की निर्मलता है, अंतःकरण की शुद्धि है कि कार्य करने मात्र से प्रसन्न हो जायें। अतः जिस कार्य को करने से हमारा चित्त प्रसन्न हो, जो कार्य शास्त्रसम्मत हो, महापुरुषों द्वारा अनुमोदित हो वही कार्य धर्म कहलाता है।
किसी को पानी पिलायें, भोजन करायें एवं बदले में पच्चीस-पचास रूपये मिल जायें – यह अच्छे कार्य करने का फल नहीं है। अच्छे कार्य करने का फल यह है कि हमारी आदतें अच्छी बनें। कोई ईनाम मिले तभी सुखी होंगे क्या ? प्यासे को पानी एवं भूखे को भोजन देना यह कार्य क्या स्वयं ही इतना अच्छा नहीं है कि उस कार्य को करने मात्र से हमें सुख मिले ? है ही। उत्तम कार्य को करने के फलस्वरूप चित्त में जो प्रसन्नता होती है, निर्मलता का अनुभव होता है उससे उत्तम फल अन्य कोई नहीं है। यही चित्त का प्रसाद है, मन की निर्मलता है, अंतःकरण की शुद्धि है कि कार्य करने मात्र से प्रसन्न हो जायें। अतः जिस कार्य को करने से हमारा चित्त प्रसन्न हो, जो कार्य शास्त्रसम्मत हो, महापुरुषों द्वारा अनुमोदित हो वही कार्य धर्म कहलाता है।
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